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Tuesday, December 31, 2013

चलो याद करते हैं......

इस आत्म विसर्जक युग में
कुछ पल के लिए ही सही
चलो भूलते हैं
कल की सारी बातों को
व हर गहरी अँधेरी रातों को
और क़दमों को मिली हर मातों को.....
चलो भूलते हैं
अपने सजाये प्लास्टिक के फूलों को
व भेस बदल कर चुभते शूलों को
और पीछे पछताते सारे भूलों को......
चलो भूलते हैं
दीवारों में दबे अपने संसार को
व आँगन में उग आई हर बाड़ को
और धूप-छाँव से पड़ती हुई मार को.....
चलो भूलते है
दुःख के अपने सारे प्रबंधों को
व आधुनिकता से हुए अनुबंधों को
और बिखरे से हर संबंधों को....

इस उत्सव अनुप्रेरक युग में
कुछ पल के लिए ही सही
चलो याद करते हैं
आंसुओं में छिपे मधुर गीत को
हर मुश्किल में भी थामे मीत को
और उनका आभार प्रकटते रीत को....
चलो याद करते हैं
बेरुत ही फागुनी फुहारों को
उसमें झूमते-गाते खुमारों को
और प्यार के नख-शिख श्रृंगारों को.....
चलो याद करते हैं
उस शुद्ध सच्चे उल्लास को
व उसी से बंधी हर आस को
और चिर-परिचित हास-विलास को....
चलो याद करते हैं
प्राण से उठती शुभ पुकार को
व शुभैषी कामनाओं के उपहार को
और प्रणम्य सा सबों के स्वीकार को.....
चलो याद करते हैं .


         *** शुभकामनाएं ***

Monday, December 23, 2013

इतनी अकल तो....

आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि
जंगल होकर भी
आदमी की खाल
आसानी से
पहन सकता है
और अपनी
सभ्यता के बढ़ते
जंगली घास में
छोटा सा ही सही
बाड़ लगा सकता है
या इंसान बनकर
सभ्येतर दहाड़ों को
आगे बढ़कर खुद ही
पछाड़ लगा सकता है......
आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि
खून से सने
अपने जबड़ों को
कोमल पत्तियों से
बहला सकता है
और किसी
खरोंच की खोज में
झपटने को बेचैन
भीतर छिपे सारे
सांप-सियार
भेड़िया-गिद्ध को
किसी भी लोथड़े पर
यूँ ही टूट पड़ने से
बहुत हद तक
बचा सकता है.....
लगता तो है कि
आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि
वह स्वार्थ को
साधते हुए भी
पुरुषार्थ का खाल
आसानी से
पहन सकता है
और मन-ही-मन
अपना नाम
सिद्धार्थ रखकर
दिखावे के लिए
थोडा-बहुत ही सही
परमार्थ तो
जरूर कर सकता है
फिर अपने अनुसार
शब्दों का
शब्दार्थ भी
बदल सकता है........
तब आदमी क्या ?
और जंगल क्या ?
बस मौके-बे-मौके
पोल-पट्टी न खुले
इतनी उम्मीद तो
अब आदमी
अपने अकल से
जरूर लगा सकता है
और अपनी खाल में
पूरे जंगल को
किसी भी बाजार में
आसानी से
जरूर चला सकता है.......
आदमी में
इतनी अकल तो
जरूर है कि.......

Tuesday, December 17, 2013

क्षणिकाएँ ......

जैसे इस विराट अस्तित्व में
खोये को खोज लेने की
कोई युक्ति नहीं होती
वैसे ही जीवन को
समग्रता से जीने के लिए
सर्वमान्य कोई सूक्ति नहीं होती .

         ***

जैसे हजारों फूलों को
निचोड़-निचोड़ कर
उत्तम इत्र बनाया जाता है
वैसे ही जीवन की चुनौतियों को
बड़े ही प्यार से
मचोड़-मचोड़ कर
अपना मित्र बनाया जाता है .

         ***

जैसे सागर तक पहुँचने के लिए
नदी को किनारे से
बंधा रहना पड़ता है
वैसे ही लक्ष्य पाने के लिए
प्रत्येक कदम को
हर अगले कदम से
जोड़े रखना पड़ता है .

         ***

जैसे भूख मर जाती है तो
सुन्दर से सुन्दर भोजन भी
देखते-देखते मर जाता है
वैसे ही समय को
मलहम बना लेने पर
हरा से हरा घाव भी
पूरा ही भर जाता है .

         ***

जैसे धूल तलहटी में बैठती है
तो झरना फिर से
स्वच्छ और साफ़ हो जाता है
वैसे ही बौद्धिकता का
रंगीन आवरण हटाते ही
वही बुद्धू बच्चा सा मन
अपने आप हो जाता है .

Thursday, December 12, 2013

यह अंतर्वेदना कैसी है ? ....

यह अंतर्वेदना कैसी है ?
यह अनुताप कैसा है ?
वाणी-विहीन रंध्रों से फूटता
यह आकुल आर्द्र आलाप कैसा है ?

असाध्य क्लेश सा पीर क्यों है ?
नैन-कोर में ठहरा नीर क्यों है ?
अनमनी व्यथा की छटपटाहट
कुछ विरचने को अधीर क्यों है ?

कौन सी इच्छा भाँवरे भर
ऐच्छिक गति से होती मुखर
हत ह्रदय को मड़ोरता हुआ
क्यों टेर देता है कोई स्वर ?

कसकते हूक को शब्दों में कैसे ढालूं ?
या जी को बहलाने को क्या मैं गा लूं ?
बस मेरा वश मुझे ही बता दे
क्या मेरा है जो आज किसी को दे डालूं ?

विह्वल-सा यह वायु क्यों बहता ?
बिंध-बिंधकर मुझको कुछ कहता
गलबहियां दे उसे रोक जो पाती
क्या बैठ पहर भर मुझ संगति करता ?

क्यों कजरा धो-धोकर होता सवेरा ?
क्यों सूरज भी बन जाता है लूटेरा ?
संझा भी झंझा सी रुककर
क्यों करती दग्ध बाहों का घेरा ?

आज अति शोकित धरा-आकाश क्यों है ?
मलिन मुख में क्षितिज भी उदास क्यों है ?
टूटा-सा प्यारा सुख सपना लेकर
सिर टेके बिसुरती आस क्यों है ?

क्यों असंयत हो दहकता है तन-मन ?
क्यों विरह-प्रपीड़ित है ये दृढ आलिंगन ?
तड़प-तड़पकर ही रह जाता है
क्यों विकल अधर युगल का चुम्बन ?

जब लपट ह्रदय से लिपटी हो ऐसे
तो मूढ़ अगन बुझेगी भी कैसे ?
तब जल का आगार भी आक्रान्त होकर
बढ़ाता संताप है निज वड़वानल जैसे.....

तो भी असम्भव सी आकांक्षा भटकती क्यों है ?
निराशाओं के बीच भी अटकती क्यों है ?
शून्य से सुनहरा चित्र खींचकर
शंकित हो उसे ही तकती क्यों है ?

इतनी दारुण दुर्बल अवस्था में
औ' प्रीत की बलबती भावुकता में
क्यों प्राण भी सहज नहीं छूटता
न जाने किस अक्षय विवशता में.....

फिर विवशता की यह अंतर्वेदना कैसी है ?
फिर विवश सा यह अनुताप कैसा है ?
वाणी-विहीन रंध्रों से फूटता
फिर यह विवश आलाप कैसा है ? 

Sunday, December 8, 2013

मेरा एक काम .....

                                     फूल भी तुम्हारा
                                    चरण भी तुम्हारा
                                     शीश जो चढ़ाऊँ
                                    शरण भी तुम्हारा

                                     चलूँ तो तुममें
                                      बैठूँ तो तुममें
                                      रूक जाऊँ तो
                                     ऐंठूँ भी तुममें

                                      खाऊँ तो तुम्हें
                                      पियूँ तो तुम्हें
                                       श्वास भी लूँ
                                      तो जियूँ तुम्हें

                                        चुप तो तुम
                                        बोलूँ तो तुम
                                        रूठूँ तुम्हीं से
                                        मानूँ तो तुम

                                       ओढ़नी भी तू
                                      बिछौनी भी तू
                                      सोऊँ तो उसमें
                                      मिचौनी भी तू

                                      आकाश भी तेरा
                                       सागर भी तेरा
                                        मिट्टी का सब
                                        गागर भी तेरा

                                          हवा भी तू
                                         आग भी तू
                                      सब को पिरोता
                                         ताग भी तू

                                       माया भी तुम
                                       मोह भी तुम
                                      मिलन तुम्हीं से
                                      बिछोह भी तुम

                                       दुविधा भी तुम
                                      सुविधा भी तुम
                                        विष के बीच
                                        सुधा भी तुम

                                        प्रश्न भी तुम
                                       उत्तर भी तुम
                                        पूछूँ कुछ तो
                                      निरुत्तर भी तुम

                                       मिथ्या भी तुम
                                        सांच भी तुम
                                      रस से पिघलाते
                                        आंच भी तुम

                                        नया भी तू
                                       पुराना भी तू
                                      बाँचने के लिए
                                       बहाना भी तू

                                      कोई भी नाम
                                       तेरा ही नाम
                                     पुकारा तुम्हें ही
                                       मुझे तू थाम

                                      तुम्हें ही रोया
                                      तुम्हें ही गाया
                                      तड़प को चैन
                                     तनिक न आया

                                      ना दो आराम
                                     पर लो प्रणाम
                                     तुझे ही जपना
                                     मेरा एक काम .

Tuesday, December 3, 2013

मैं कालिदास बन जाती.......

कल की रात
थोड़ा सा और जोश आ जाता तो
या थोड़ा सा और होश खो जाता तो
निधड़क ही मैं कालिदास बन जाती
और उनके जैसा बहुत सारा तो नहीं
पर कम-से-कम एक काव्य तो
निश्चित ही लिख पाती....

झटके से उठकर मैं मंदिर भागी और
माँ के मुख पर थोड़ा कालिख लगा आई थी
रास्ते में मिले छोटे-बड़े झाड़ियों पर चढ़कर
दो-चार कोमल टहनियाँ भी गिरा आई थी
फिर घर के अखबार से लेकर बिल तक
हर कागजनुमा पदार्थ को सहला दिया था
मानती हूँ कि इस फिरे हुए सिर को
श्री कालिदास ने और भी फिरा दिया था....

मेरे आस-पास मेरी लेखनी थी , मसि थी
मेरी इच्छा की मुट्ठी भी सच में बहुत कसी थी
स्वर्णपत्र , ताम्रपत्र , भोजपत्र आदि का
अच्छा खासा लगा अम्बार था
और रत्न जड़ित पीठिका पर
उत्तेजित हर एक उच्चार था
एक कोने से पर्याप्त प्रकाश करता हुआ
मेरा दिया भी कितना सुकुमार था
शायद मुझसे ज्यादा उसको ' मुझ-रचित '
एक चिर जीवन्त काव्य का इन्तजार था.....

मेरी कल्पनाशीलता भी कुछ
दिव्य दिग्दर्शन करके शब्दातीत थी
और सर्वश्रेष्ठता के शिखर पर पालथी मारकर
बैठी मेरी चेतना भी कालातीत थी
ऊपर से मेरा ' सख्य-भाव ' सबसे मिलकर
अपनी श्रेष्ठ भूमिका का उल्लेख चाहता था
और एक उत्कट प्रकृति प्रदत्त प्रेम का
मुझसे उल्लिखित लेख चाहता था.....

प्रसंगों-उपाख्यानों का समन्वयन के लिए
विहंगम अवलोकन का स्थापित आधार था
और अलकापुरी से रामगिरि की यात्रा के लिए
मेरा बोरिया-बिस्तर भी तैयार था
जब पूरे राग-रंग में बुरी तरह से डूबा हुआ
अलकेश्वर का राज्य और दरबार था
और भोगी चाटुकारों के बीच रहते-रहते
कुछ ऐसा शाप देने से उन्हीं को इनकार था....

फिर यक्ष-यक्षिणी को भी तो अलकेश्वर का
कोई भी फरमान कहाँ स्वीकार था ?
और विरह-वियोग का पुराना चलन
अब उनके लिए भी बेकार था
पद-प्रमादवश गलतियां किससे नहीं होती ?
उनका यही सीधा सरल सवाल था
वैसे भी आज के उपद्रवों के बवंडर में
उनका तो बहुत छोटा सा बवाल था.....

साथ ही इस गुनगुनी-कुनकुनी ठण्ड में
मेरी बादलों से हुई सारी वार्ताएं विफल रही
और लपलपाती हुई लेखनी उन पत्रों को
बस छेड़छाड़ करने में ही सफल रही
फिर अपने काव्य में किसी नये चरित्र को
पात्र बनाती , मुझमें कहाँ इतना दम था?
और सच कहने में लाज या संकोच कैसा
कि मुझमें ही वो पानी कम था .....

अकस्मात ही मेरी स्मृति-पटल को सूझा
कि एक ही कालिदास हैं नास्ति दूजा
तब तो सौंदर्य-वियोग , वैराग्य-वेदना आदि का
स्व्प्न सा ही सही फैला हुआ वितान था
उनको थोड़ा-बहुत अनुभूत करने के लिए
मेरे पास उपलब्ध सारा अनुमान था
पर मेरी भाषा में कहाँ उतना प्राण था ?
न ही देववाणी संस्कृत का ही मुझे ज्ञान था.....

अब इस दिन के उजाले में
आदरणीय कालिदास जी के आदरणीय भूत जी को
अति सम्मान के साथ भगा रही हूँ
और अंदर बैठे हीन भाव से ग्रस्त कवि को
ऐसी ही चलताऊ कविता के लिए जगा रही हूँ
और तो और आँख खोलकर इस साधना-स्थली को
किसी कबाड़खाना सा देख रही हूँ
और उन पत्रों की रद्दियों को
टोकड़ी में भर-भरकर बाहर फेंक रहीं हूँ
उनके साथ ही मेरा सारा शौक , सारा अरमान
ख़ुशी-ख़ुशी मुझे छोड़ कर जा रहा है
और श्री कालिदास जी मुझे कह रहे हैं कि
भई! चलताऊ कवि जी , हमें तो बड़ा मजा आ रहा है .