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Saturday, September 28, 2013

नव स्वाति-नक्षत्र...

खगोल शास्त्र के हुकुम की
नाफ़रमानी न करते हुए
नव स्वाति-नक्षत्र को आना ही है
अपने लेखा पर रोते हुए भी
दाँत निकाल-निकाल कर मुस्कुराना ही है...
पर उसका कई मन से भी भारी मन
और भारी-भारी पाँव को देखते हुए
मेरे जी में आ रहा है कि
मैं भी उसे एक बिलकुल मुफ़्त सलाह दे दूँ
कि वह चुपचाप अपना पथ बदलकर
उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव जाए
और किसी बर्फ-घर के तहखाने में
छिपकर तबतक आराम फरमाए
जबतक कि संहिता के हिसाब से
सीपी सब सुधर न जाए.....
उन सीपियों का क्या ?
उन्हें तो यूँ ही अपना मुँह फाड़े रहना है
जो कुछ भी आ जाए उसमें
उसे बस निगलते जाना है
फिर गलती से भी डकार नहीं लाना है
क्योंकि गुप्त आँखों का भी तो जमाना है
साथ ही इधर-उधर डोलती-फिरती हुई
भद्दी-गन्दी बूंदों को भी
रोगन-पालिश कर-करके मोती बनाना है.......
हाय! इन अत्याधुनिकाएँ बूंदों की तो
हर अदा ही निराली होती जा रही है
एक तो पहले ही हूर सरीखी चाल थी
अब तो और भी मतवाली होती जा रही है.....
उनके पास अब तो एक-से एक चकाचक घोषणापत्र है
जिसमें शेखचिल्ली को मात करने वाला
एक-से-एक चौंकाऊ चुटकुले हैं
जैसे कि पिरामिड को पीट-पीट कर बराबर करना
या चीन की दीवार को खिसकाकर लाना
या फिर एफिल-टॉवर को बौना करना
या झुकी मीनारों के रीढ़ को खींचकर सीधा करना
ऐसे ही और भी बड़ी-बड़ी योजनायें हैं
जिसे सुनकर अब
न तो हँसी आती है न ही दिल से रोना
सही ही कहा जाता है कि
कुछ पाने की उम्मीद में ही
चेतावनी-सा लिखा होता है खोना.....
वैसे भी पञ्चवर्षीय संवैधानिक चाल से
नव स्वाति-नक्षत्र का आना हो या जाना
या सीपियों का ही हो सौतिया सोखाना
या फिर मोतियों का ही हो मनमोहक मनमाना
या बूंदों का ही हो येन-केन-प्रकारेण बिजली गिराना
पर हम कंकड़-पत्थरों का क्या ?
उस विशेष घड़ी में
घुड़क-घुड़क कर है एक ठप्पा लगाना
फिर बाकी दिन तो वैसे ही एक समाना
और अपनी ही उलझी अंतड़ियों में
थोड़ा और उलझ कर
सौ के बदले हजार तरह से मरते जाना .


23 comments:

  1. और कुछ योजनायें तथा घोषणाएं तो ऐसी है जो स्थायी प्रविष्टि की तरह हर बार अपने को दोहरा रही है. ना जाने कब तक उनकी पुनरावृति चलेगी. अच्छा लगा नव स्वाति की उपमा.

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  2. नव स्वाति-नक्षत्र का समय पास आ चुका है, देखना है ख़ुशी से जीना है की हर बार की तरह से मरते जाना ... विचारणीय भाव

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  3. उन सीपियों का क्या ?
    उन्हें तो यूँ ही अपना मुँह फाड़े रहना है
    जो कुछ भी आ जाए उसमें
    उसे बस निगलते जाना है.. कुछ सवर्था नवीन व भिन्न से प्रयोग व विम्ब देखने को मिले ..बहुत खूब!
    आपकी इस उत्कृष्ट रचना की चर्चा कल रविवार, दिनांक 29 सितम्बर 2013, को ब्लॉग प्रसारण पर भी लिंक की गई है , कृपया पधारें , औरों को भी पढ़ें और सराहें,
    साभार सूचनार्थ

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  4. वाह अमृता जी...यह एप्रोच बहोत इंटरेस्टिंग लगी ....बिम्ब नए लगे.....:)

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति .. इस बार सरल शब्दों के साथ :) नए बिम्ब

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  6. सुन्दर प्रस्तुति
    आभार आदरणीया-

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  7. बहुत बढ़िया जी

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  8. लम्‍बी गहरी अभिव्‍यक्ति। वृहद कल्‍याण भावना से प्रस्‍फुटित मन का अविस्‍मरणीय अट्टाहस।

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  9. amrita ji aaj ki vayvastha par aapka achha kataksh hai, par ham logon ko milkar yeh vayvastha badlni hai

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  10. ज़बरदस्त बिम्ब ….वाह सच में मज़ा आ गया……बहुत बहुत शानदार

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  11. नए बिम्ब लिए बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..बहुत बढ़िया

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  12. जन्म से मृत्यु तक का यही कथा-सार है. बहुत सुंदर कविता.

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  13. समयाभाव के कारण आज बहुत दिनों पश्चात् ब्लॉग पर आ पाया हूँ आते ही आपकी एक सुन्दर रचना से भेंट हो गई.
    बधाई

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  14. स्वाति नक्षत्र है कब ?
    न मुझे यह पता है और न ही
    किसी खुले मूंह की सीप का
    मैं अनजान राहों का राही

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  15. बहुत खूब ... रोचक शब्द ओर रोचक ताना बना ... नए बिम्ब ओर स्पष्ट सन्देश .... एक प्रभावी रचना का सृजन है ...

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  16. उन सीपियों का क्या ?
    उन्हें तो यूँ ही अपना मुँह फाड़े रहना है
    जो कुछ भी आ जाए उसमें
    उसे बस निगलते जाना है
    फिर गलती से भी डकार नहीं लाना है
    क्योंकि गुप्त आँखों का भी तो जमाना है

    राजनीति का फरेब और धंधे बाजों के वायदे और बुद्धि मंद के आरोपित इरादे ,प्रजातांत्रिक जनता का सेकुलरों की मांद में सिसकना सभी कुछ तो कहा डाला इस रचना ने। वाह !क्या कटाक्ष है।

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  17. प्रवीण पाण्डेय जी ने कहा --
    आस में, विश्वास में, उतरती चढ़ती साँस में।

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  18. उम्दा और गहन पोस्ट.... दो-तीन बार पढ़ने के बाद बात समझ में आई...

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